शोधकर्ताओं ने मधुमेहजन्य किडनी रोग के प्रारंभिक चेतावनी संकेतों की खोज की है और व्यक्तिगत उपचार का मार्ग प्रशस्त किया है।

मधुमेह की जटिलताओं को पहचानने के लिए रक्त में छिपे सूक्ष्म अणुओं की खोज

Mumbai
Blood test

भारत को ‘डायबिटीस कैपिटल ऑफ़ दी वर्ल्ड’ अर्थात मधुमेह की वैश्विक राजधानी कहा जाता है। देश में लगभग 10 करोड़ लोग इस विकार से ग्रस्त हैं। लगभग 13 करोड़ लोगों में प्रारंभिक लक्षण हैं तथा वे 'प्री-डायबिटीज' अर्थात मधुमेह बढ़ने की अवस्था में हैं। इसी कारण, टाइप 2 मधुमेह देश के लिए एक बहुत बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता बन गया है। रक्त में शर्करा का स्तर (चीनी की मात्रा) सामान्य स्तर से अधिक बने रहने एवं शरीर इसे ठीक से नियंत्रित नहीं कर पाने पर यह विकार होता है। आनुवंशिक कारण, मोटापा, निष्क्रिय जीवनशैली (कम शारीरिक गतिविधि), अस्वस्थ खान-पान, पारिवार में मधुमेह होने का इतिहास, उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर), असामान्य कोलेस्ट्रॉल, गर्भावस्था के दौरान होने वाला मधुमेह (जेस्टेशनल डायबिटीस) एवं तनाव—ये सभी कारक इस रोग को बढ़ावा देते हैं। चूँकि कई रुग्णों में रोग का निदान विलंब से होता है, उनके नेत्र, किडनी, नसें, हृदय और मस्तिष्क को प्रभावित करने वाली जटिलताएं (कॉम्प्लीकेशंस) सामान्य होती हैं। लगभग एक-तिहाई रोगियों में ‘क्रोनिक किडनी रोग’, यानी वृक्क का दीर्घकालिक विकार भी विकसित हो जाता है।

मधुमेह के लिए प्रमाणित नैदानिक परीक्षणों में सामान्यतः खाली पेट रक्त शर्करा, एचबीए1सी (जो पिछले तीन महीने की औसत रक्त शर्करा बताता है) एवं किडनी स्वास्थ्य के आकलन के लिए क्रिएटिनिन (शरीर का एक अपशिष्ट पदार्थ) के स्तर का परीक्षण किया जाता है। यद्यपि, ये परीक्षण इस विकार के मूल में होने वाली जटिल जैव रासायनिक दोषों का केवल एक छोटा-सा भाग ही पकड़ पाते हैं और यह कभी कभी सटीक रूप से नहीं बता सकते कि किस व्यक्ति को संकट सबसे अधिक है।

एक नवीन शोध-अध्ययन में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई (आईआईटी मुंबई) के प्राध्यापक प्रमोद वांगीकर तथा उस्मानिया मेडिकल कॉलेज के डॉ. राकेश कुमार सहाय एवं डॉ. मनीषा सहाय के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने, पुणे स्थित क्लैरिटी बायो सिस्टम्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर जैव-रासायनिक विन्यासों (बायोकेमिकल पैटर्न्स) की खोज करने का प्रयास किया जो किडनी (वृक्क) संबंधी जटिलताओं की जोखिम का सामना करने वाले रुग्णों की पहचान में सहायक हो सकते हैं। इस कार्य हेतु उन्होंने मेटाबोलोमिक्स (Metabolomics), अर्थात रक्त में विद्यमान सूक्ष्म अणुओं के अध्ययन का उपयोग किया। जुलाई 2025 में जर्नल ऑफ प्रोटीओम रिसर्च में प्रकाशित हुए उनके यह निष्कर्ष, चिकित्सकों को समस्याओं का निदान शीघ्र करने तथा अधिक व्यक्तिगत उपचार (पर्सनलाइज्ड ट्रीटमेंट) विकसित करने में सहायता प्रदान कर सकते हैं।

प्रा. वांगीकर की प्रयोगशाला में पीएचडी शोधकर्ता और इस अध्ययन की प्रथम लेखिका, स्नेहा राणा बताती हैं, “टाईप 2 मधुमेह केवल रक्त में शर्करा स्तर उच्च होने तक ही सीमित नहीं है। यह शरीर में अमीनो एसिड, चरबी (फैट्स) और अन्य उपापचयी मार्गों (मेटाबोलिक पाथवे)—अर्थात् रासायनिक क्रियाओं के तंत्र—को बाधित करता है। प्रमाणित परीक्षण बहुधा इस अदृश्य गतिविधि को पकड़ नहीं पाते, जो रोग विषयक लक्षणों के प्रकट होने से वर्षों पूर्व ही आरंभ हो सकती है।”

इस रोग का अधिक व्यापक चित्र प्राप्त करने हेतु, शोधकर्ताओं ने एक ही समय में सैकड़ों ‘मेटाबोलाइट्स’ की उपापचयी रूपरेखा (मेटाबोलिक प्रोफाइलिंग) की। मेटाबोलाइट्स शरीर में विद्यमान सूक्ष्म अणु होते हैं जो कोशिकाओं के भीतर चल रही तत्कालीन क्रियाशीलता को दर्शाते हैं। इनका विश्लेषण करके शरीर की रासायनिक प्रक्रिया में होने वाले उन छिपे हुए परिवर्तनों को पहचाना जा सकता है जो रोग विषयक लक्षणों के प्रकट होने से पूर्व ही घटित होते हैं।

पूर्व के मेटाबोलोमिक्स आधारित अध्ययनों ने मधुमेह और शाखायुक्त अमीनो एसिड (ब्रांच्ड चेन अमीनो एसिड; बीसीएए), एसाइलकार्निटाइन और कुछ विशेष प्रकार के लिपिड्स के बीच संबंध को रेखांकित किया है। किंतु, उन शोधों का अधिकांश कार्य यूरोपीय अथवा पूर्वी एशियाई जनसंख्या समूहों में किया गया है। चूँकि आनुवंशिकता (जेनेटिक्स) एवं जीवन-शैली विभिन्न जनसंख्याओं में भिन्न-भिन्न होती है, अतः एक क्षेत्र में पाए गए जैविक चिह्नक (मार्कर्स) अन्य जनसंख्याओं के लिए उपयोगी नहीं हो सकते।

डॉ. राकेश सहाय कहते हैं, “पश्चिमी जनसंख्या की तुलना में, भारतीय व्यक्ति प्रायः कम आयु में और कम बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) होने पर भी मधुमेह से ग्रसित हो जाते हैं, और उन्हें किडनी रोग जैसी जटिलताओं की जोखिम अधिक होती है। भारतीय रोगियों में उपापचयी विन्यास (मेटाबोलिक पैटर्न्स) भिन्न प्रकार के हैं या नहीं इसकी जाँच करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।”

इस अध्ययन हेतु, शोधदल ने जून 2021 से जुलाई 2022 के मध्य हैदराबाद स्थित उस्मानिया जनरल अस्पताल में 52 प्रतिभागियों के सम्पूर्ण रक्त के नमूनोंका (होल ब्लड सैम्पल्स) का परीक्षण किया। इन प्रतिभागियों में स्वस्थ नियंत्रण समूह के 15 व्यक्ति (हेल्दी कण्ट्रोल ग्रुप), टाईप 2 मधुमेह से ग्रस्त 23 रोगी और मधुमेहजन्य किडनी रोग के 14 रोगी सम्मिलित थे। शोधकर्ताओं ने लिक्विड क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री (LC-MS) तथा गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री (GC-MS) नामक दो पूरक तकनीकों का उपयोग करते हुए लगभग 300 मेटाबोलाइट्स के लिए नमूनों का परीक्षण किया ।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मधुमेह रोगियों और स्वस्थ नियंत्रण समूह के व्यक्तियों के मध्य 26 मेटाबोलाइट्स भिन्न थे। इनमें से कुछ अपेक्षित थे, जैसे कि ग्लूकोज (रक्त शर्करा), कोलेस्ट्रॉल और 1,5-एन्हाइड्रोग्लुसिटोल (रक्त शर्करा में अल्पकालिक बदलाव का एक चिह्नक)। परंतु कुछ अन्य मेटाबोलाइट्स, जैसे वैलेरोबेटाइन, राइबोथाइमिडीन और फ्रुक्टोसिल-पाइरोग्लूटामेट, को पूर्व में मधुमेह से नहीं जोड़ा गया था।

प्रा. वांगीकर टिप्पणी करते हैं, “इससे इंगित होता है कि मधुमेह केवल शर्करा के अपविनियंत्रण (ग्लूकोज डिसरेग्युलेशन) से परे एक अधिक व्यापक उपापचयी विकार (मेटाबोलिक डिसॉर्डर) है।”

शोधकर्ताओं ने मधुमेह रोगियों के मध्य दो भिन्न उपसमूह पाए। एक समूह उपापचय की दृष्टि से स्वस्थ व्यक्तियों के अधिक निकट प्रतीत हुआ, जबकि दूसरे में तनाव, दाह (इन्फ्लेमेशन) और ऊर्जा निर्मिति से संबंधित बड़े परिवर्तन परिलक्षित हुए।

डॉ. राकेश सहाय कहते हैं, “ये चिह्नक भविष्य में चिकित्सकों द्वारा उसी प्रकार उपयोग किए जा सकते हैं जैसे कि हृदय संबंधी संकट की स्थितिओं का आकलन करने के लिए कोलेस्ट्रॉल परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है। अर्थात, कुछ रोगियों को अधिक आक्रामक उपचारों की आवश्यकता हो सकती है, जबकि अन्य रोगियों को जीवनशैली में परिवर्तन से अधिक लाभ हो सकता हैं।”

किडनी रोग से ग्रस्त रोगियों की तुलना अन्य समूहों से करने पर, शोधकर्ताओं ने सात ऐसे मेटाबोलाइट्स की पहचान की जिनकी मात्रा स्वस्थ व्यक्तियों से लेकर मधुमेह रोगियों और फिर मधुमेहजन्य किडनी रोग के रोगियों तक निरंतर बढ़ती गई। इनमें एराबिटोल और मायो-इनोसिटोल जैसे शर्करा-अल्कोहल, राइबोथाइमिडीन, और 2पीवाई नामक एक विष-सदृश यौगिक (टॉक्सिन-लाइक कम्पाउंड) सम्मिलित थे, जो किडनी के क्षतिग्रस्त होने पर संचित होता है।

स्नेहा राणा कहती हैं, “इन अणुओं पर ध्यान रख के, हम किडनी संबंधी जटिलताओं की भविष्यवाणी बहुत पहले कर सकते हैं।” डॉ. मनीषा सहाय का कथन है, “ये चिह्नक, क्रिएटिनिन, ईजीएफआर (किडनी की छानने की क्षमता) का अनुमान और एल्बुमिनूरिया (मूत्र में प्रोटीन की उपस्थिति) मापने जैसे उपलब्ध चिह्नकों का स्थान ले सकते हैं या उनके पूरक हो सकते हैं। उपलब्ध चिह्नक किडनी विकार का संकेत देने से पहले ही शोधकर्ताओं द्वारा सूचित किए गए चिह्नकों द्वारा मधुमेह से ग्रस्त उन व्यक्तियों की पहचान की जा सकेगी जिन्हें किडनी रोग का संकट है। तथा किडनी रोग को तीव्र होने से रोकने वाली चिकित्सा पद्धतियों का शीघ्र उपयोग संभव हो सकेगा।”

अधिकांश पूर्व के अध्ययनों के विपरीत, जो केवल रक्त के तरल भाग (प्लाज्मा या सीरम) पर केंद्रित थे, इस शोध में संपूर्ण रक्त (होल ब्लड) का विश्लेषण किया गया। प्रा. वांगीकर कहते हैं, “इस कार्य में नैदानिक उपयोग की प्रबल क्षमता है, क्योंकि उंगली की नोंक से लिए गए रक्त के सूखे धब्बों के आधार पर एक परीक्षण विकसित किया जा सकता है। हमारी प्रयोगशाला में हम इस पर कार्यरत हैं।” संपूर्ण रक्त में प्लाज्मा के अतिरिक्त लाल रक्त कोशिकाओं से भी मेटाबोलाइट्स की पहचान हो सकती है, जिससे एक अधिक व्यापक, किंतु भिन्न, उपापचयी चित्र (मेटाबोलिक स्नैपशॉट) प्राप्त होता है। संपूर्ण रक्त के परीक्षण का यह लाभ स्पष्ट कर सकता है कि पश्चिमी अध्ययनों से प्राप्त बीसीएए जैसे कुछ सुविख्यात चिह्नक यहाँ दृढ़ता से क्यों नहीं दिखाई दिए। इसका कारण उनकी प्रचुरता एवं वितरण संपूर्ण रक्त और प्लाज्मा के मध्य तथा विभिन्न जनसंख्याओं में भिन्न हो सकते हैं।

वर्तमान में इस अध्ययन में मर्यादित व्यक्तियों के नमूनों पर कार्य किया गया है। शोधकर्ता इसे मधुमेह तथा विभिन्न जटिलताओं से ग्रस्त अधिक व्यक्तिओं से डेटा प्राप्त करने के लिए विस्तृत करने की योजना बना रहे हैं। इस अध्ययन का उद्देश्य सरल नैदानिक परीक्षणों का विकास करना है जो न केवल मधुमेह के शीघ्र निदान में सहायक हों, अपितु जटिलताओं के उच्च संकट वाले व्यक्तियों की भी पहचान कर सकें। यह दीर्घकाल में रोगी के अनुसार व्यक्तिगत निगरानी (पर्सनलाइज्ड केयर) का मार्ग प्रशस्त करेगा।

स्नेहा राणा निष्कर्षतः कहती हैं, “भारत में हम प्रायः सबके लिए एक समान मधुमेह उपचार करने के दृष्टिकोण पर निर्भर रहते हैं। इन नवीन चिह्नकों के साथ, हम प्रत्येक रोगी की विशिष्ट रूपरेखा के अनुरूप उपचारों को अनुकूलित कर सकते हैं।”

 वित्तपोषण: इस अध्ययन को कोईता सेंटर फॉर डिजिटल हेल्थ, आईआईटी मुंबई एवं जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा वित्तपोषित किया गया।

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